Abhay Ghat Entrance

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Tuesday, January 3, 2017

2017-01-03

Posted : Tuesday, 03rd January 2017, 00:00 Hours IST (GMT +5:30)

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विश्वास से श्रद्धा की प्रग़ाढ़ता होती है। जिससे समर्पण बढ़ता है। यह संसार और परमार्थ दोनों में ही महत्त्वपूर्ण है। 
= स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती



   प्रेरक कहानियाँ

गुरु-दक्षिणा

      एक बार एक शिष्य ने विनम्रतापूर्वक अपने गुरु जी से पूछा- ‘गुरु जीकुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष हैकुछ अन्य कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कुछ जीवन को एक उत्सव की संज्ञा देते हैं | इनमें कौन सही है?’ गुरु जी ने तत्काल बड़े ही धैर्यपूर्वक उत्तर दिया- ‘पुत्रजिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है; जिन्हें गुरु मिल गया उनका जीवन एक खेल है और जो लोग गुरु द्वारा बताये गए मार्ग पर चलने लगते हैंमात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं | ’यह उत्तर सुनने के बाद भी शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था| गुरु जी को इसका आभास हो गयावे कहने लगे- ‘लोतुम्हें इसी सन्दर्भ में एक कहानी सुनाता हूँ| ध्यान से सुनोगे तो स्वयं ही अपने प्रश्न का उत्तर पा सकोगे |’
उन्होंने जो कहानी सुनाईवह इस प्रकार थी एक बार की बात है कि किसी गुरुकुल में तीन शिष्यों नें अपना अध्ययन सम्पूर्ण करने पर अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरुदाक्षिणा में, उनसे क्या चाहिएगुरु जी पहले तो मंद-मंद मुस्कराये और फिर बड़े स्नेहपूर्वक कहने लगे- ‘मुझे तुमसे गुरुदक्षिणा में एक थैला भर के सूखी पत्तियां चाहिएला सकोगे?’ वे तीनों मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि उन्हें लगा कि वे बड़ी आसानी से अपने गुरु जी की इच्छा पूरी कर सकेंगेसूखी पत्तियाँ तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती हैं| वे उत्साहपूर्वक एक ही स्वर में बोले- ‘जी गुरु जी, जैसी आपकी आज्ञा |’
अब वे तीनों शिष्य चलते-चलते एक समीपस्थ जंगल में पहुँच चुके थे लेकिन यह देखकर कि वहाँ पर तो सूखी पत्तियाँ केवल एक मुट्ठी भर ही थीं ,उनके आश्चर्य का ठिकाना रहा | वे सोच में पड़ गये कि आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठा कर ले गया होगा ? इतने में ही उन्हें दूर से आता हुआ कोई किसान दिखाई दियावे उसके पास पहुँच कर, उससे विनम्रतापूर्वक याचना करने लगे कि वह उन्हें केवल एक थैला भर सूखी पत्तियां दे देअब उस किसान ने उनसे क्षमायाचना करते हुए, उन्हें यह बताया कि वह उनकी मदद नहीं कर सकता क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का ईंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया था | अब, वे तीनों, पास में ही बसे एक गाँव की ओर इस आशा से बढ़ने लगे थे कि हो सकता है वहाँ उस गाँव में उनकी कोई सहायता कर सकेवहाँ पहुँच कर उन्होंने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियां देने के लिए प्रार्थना करने लगे लेकिन उन्हें फिर से एकबार निराशा ही हाथ आई क्योंकि उस व्यापारी ने तो, पहले ही,  कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढी माँ का पता बताया जो सूखी पत्तियां एकत्रित किया करती थीपर भाग्य ने यहाँ पर भी उनका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढी माँ तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की ओषधियाँ बनाया करती थीअब निराश होकर वे तीनों खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गयेगुरु जी ने उन्हें देखते ही स्नेहपूर्वक पूछा- ‘पुत्रोले आये गुरुदक्षिणा ? ’तीनों ने सर झुका लियागुरू जी द्वारा दोबारा पूछे जाने पर उनमें से एक शिष्य कहने लगा- ‘गुरुदेवहम आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पायेहमने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग करते हैं | ’गुरु जी फिर पहले ही की तरह मुस्कराते हुए प्रेमपूर्वक बोले- ‘निराश क्यों होते होप्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान कि "सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करतीं बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते हैं "; मुझे गुरुदक्षिणा के रूप में दे दो | ’तीनों शिष्य गुरु जी को प्रणाम करके खुशी-खुशी अपने-अपने घर की ओर चले गये |
वह शिष्य जो गुरु जी की कहानी एकाग्रचित्त हो कर सुन रहा थाअचानक बड़े उत्साह से बोला- ‘गुरु जीअब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप क्या कहना चाहते हैंआप का संकेत, वस्तुतः इसी ओर है कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती हैं तो फिर हम कैसे, किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा और महत्त्वहीन मान कर उसका तिरस्कार कर सकते हैं चींटी से लेकर हाथी तक और सुई से लेकर तलवार तक सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है | ’गुरु जी भी तुरंत ही बोले- ‘हाँ पुत्र ! मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथायोग्य मान देने का भरसक प्रयास करें ताकि आपस में स्नेह, सद्भावनासहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष के बजाय उत्सव बन सके | दूसरेयदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निर्विक्षेपस्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें |’ अब शिष्य पूरी तरह से संतुष्ट था !
अंततःमैं यही कहना चाहती हूँ कि यदि हम मन, वचन और कर्म-  इन तीनों ही स्तरों पर इस कहानी का मूल्यांकन करें, तो भी यह कहानी खरी ही उतरेगीसब के प्रति पूर्वाग्रह से मुक्त मन वाला व्यक्ति अपने वचनों से कभी भी किसी को आहत करने का दुःसाहस नहीं करता और उसकी यही ऊर्जा उसके पुरुषार्थ के मार्ग की समस्त बाधाओं को हर लेती हैवस्तुतःहमारे जीवन का सबसे बड़ाउत्सवपुरुषार्थ ही होता हैऐसा विद्वानों का मत है |


Story Credit*: "Inspirational Stories in Hindi" - Developer : Rutangnaik - Offered By : RN Solutions
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