महाशिवरात्रि
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी तदनुसार दिनांक
24 फरवरी 2017, शुक्रवार
॥आज का शुभ दिन मंगलमय हो॥
कौन हैं शिव...???
शिव संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है,
कल्याणकारी या शुभकारी।
यजुर्वेद में शिव को शान्तिदाता बताया गया है। 'शि' का अर्थ है पापों का नाश करने वाला, जबकि 'व' का अर्थ देने वाला अर्थात् दाता।
क्या है शिवलिंग ...???
शिव की दो काया है। एक वह, जो स्थूलरूप से व्यक्त किया जाए, दूसरी वह, जो सूक्ष्मरूपी अव्यक्तलिंग के रूप में जानी जाती है। शिव की सबसे ज्यादा पूजा लिंगरूपी पत्त्थर के रूप में ही की जाती है। “लिंग”
शब्द को लेकर बहुत भ्रम होता है। संस्कृत में लिंग का अर्थ है ''चिह्न'' । इसी अर्थ में
यह शिवलिंग के लिए इस्तेमाल होता है। शिवलिंग का अर्थ हुआ : शिव अर्थात्
परमपुरुष का प्रकृति के साथ समन्वित-चिह्न ।
शिव, शंकर, महादेव...
शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं – शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग
शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। वास्तव में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा
तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। शिव ने सृष्टि की
स्थापना, पालना और विनाश के लिए
क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु और महेश (महेश भी
शंकर का ही नाम है) नामक तीन सूक्ष्म देवताओं की रचना की है। इस तरह शिव ब्रह्माण्ड के रचयिता
हुए और शंकर उनकी एक रचना। भगवान् शिव को इसीलिए महादेव भी कहा जाता है। इसके
अलावा शिव को 108 दूसरे नामों से भी जाना और
पूजा जाता है।
अर्धनारीश्वर क्यों...???
शिव को अर्धनारीश्वर भी कहा गया है, इसका अर्थ यह नहीं है कि शिव आधे पुरुष ही हैं या उनमें सम्पूर्णता
नहीं। दरअसल, यह शिव ही हैं, जो आधे होते हुए भी पूरे हैं। इस सृष्टि के आधार और रचयिता
यानी स्त्री-पुरुष शिव और शक्ति के ही स्वरूप हैं। इनके मिलन और सृजन से यह संसार
संचालित और सन्तुलित है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। नारी प्रकृति है और नर
पुरुष। प्रकृति के बिना पुरुष बेकार है और पुरुष के बिना प्रकृति। दोनों का
अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। अर्धनारीश्वर शिव इसी पारस्परिकता के
प्रतीक हैं। आधुनिक
समय में स्त्री-पुरुष की बराबरी पर जो इतना जोर है, उसे शिव के इस स्वरूप में बखूबी देखा-समझा जा
सकता है। यह बताता है कि शिव जब
शक्ति युक्त होता है तभी समर्थ होता है। शक्ति के अभाव में शिव 'शिव' न होकर 'शव' रह जाता है !
नीलकण्ठ क्यों...???
अमृत पाने की इच्छा से जब देव-दानव बड़े जोश और वेग से समुद्र-मन्थन
कर रहे थे, तभी समुद्र से कालकूट नामक
भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दशों दिशाएं जलने लगीं। समस्त प्राणियों में
हाहाकार मच गया। देवताओं और दैत्यों सहित ऋषि, मुनि, मनुष्य, गन्धर्व और यक्ष आदि उस विष
की गरमी से जलने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर, भगवान् शिव विषपान के लिए तैयार हो गए। उन्होंने भयंकर विष
को हथेलियों में भरा और भगवान् विष्णु का स्मरण कर उसे पी गए। भगवान् विष्णु अपने
भक्तों के संकट हर लेते हैं। उन्होंने उस विष को शिवजी के कण्ठ (गले) में ही रोक
कर उसका प्रभाव समाप्त कर दिया। विष के कारण भगवान् शिव का कण्ठ नीला पड़ गया और
वे संसार में नीलकण्ठ के नाम से प्रसिध्द हुए।
भोले बाबा
शिव पुराण में एक शिकारी की कथा है। एकबार उसे जंगल में देर हो गई। तब उसने एक
बेलवृक्ष पर रात बिताने का निश्चय किया। जगे रहने के लिए उसने एक तरकीब सोची। वह
सारी रात एक-एक पत्ता तोड़कर नीचे फेंकता रहा। कथानुसार, बेल के पत्ते शिव को बहुत प्रिय हैं। बेल वृक्ष के ठीक नीचे
एक शिवलिंग था। शिवलिंग पर प्रिय
पत्तों का अर्पण होते देख शिव प्रसन्न हो उठे, जबकि शिकारी को अपने शुभ कामका अहसास भी न था ! उन्होंने शिकारी को दर्शन देकर उसकी मनोकामना पूरी होने का
वरदान दिया। कथा से यह साफ है कि शिव कितनी आसानी से प्रसन्न हो जाते हैं। शिव
महिमा की ऐसी कथाओं और बखानों से पुराण भरे पड़े हैं।
शिवस्वरूप
भगवान् शिव का रूप-स्वरूप जितना विचित्र है, उतना ही आकर्षक भी। शिव जो धारण करते हैं, उनके भी बड़े व्यापक अर्थ हैं :
*जटाएं
शिव की जटाएं अंतरिक्ष का प्रतीक हैं।
* चन्द्र
चन्द्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन चन्द्रमा की तरह भोला, निर्मल, उज्ज्वल और जाग्रत् है।
*त्रिनेत्र
शिव की तीन आँखें हैं। इसीलिए इन्हें त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव की ये तीन आँखें
सत्त्व, रज, तम (तीन गुणों); भूत, वर्तमान, भविष्य (तीन कालों); स्वर्ग, पाताल, मृत्यु (तीनों लोकों) का प्रतीक हैं।
*सर्प-हार
सर्प जैसा हिंसक जीव शिव के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक जीव है, जिसे शिव ने अपने वश में कर रखा है।
*त्रिशूल
शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशूल भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।
*डमरू
शिव के एक हाथ में डमरू है, जिसे वह ताण्डव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्मरूप है।
*मुण्डमाला
शिव के गले में मुण्डमाला है, जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में किया हुआ है।
*छाल
शिव ने शरीर पर व्याघ्रचर्म अर्थात् बाघ की खाल पहनी हुई है। व्याघ्र हिंसा और
अहंकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा और अहंकार का दमन कर
उसे अपने नीचे दबा लिया है।
*भस्म
शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से किया जाता है। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर
है।
*वृषभ
शिव का वाहन वृषभ अर्थात् बैल है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ धर्म का
प्रतीक है। महादेव इस चार पैर वाले जानवर की सवारी करते हैं, जो बताता है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष उनकी कृपा से
ही मिलते हैं।
इस तरह शिव-स्वरूप हमें बताता है
कि उनका रूप विराट और अनन्त है, महिमा अपरम्पार है। उनमें
ही सारी सृष्टि समाई हुई है।
महामृत्युञ्जय मन्त्र
शिव के साधक को न तो मृत्यु का भय रहता है, न रोग का, न शोक का। शिवतत्त्व उनके मन को
भक्ति और शक्ति का सामर्थ्य देता है। शिवतत्त्व का ध्यान महामृत्युञ्जय मन्त्र के जरिए किया जाता है। इस मन्त्र के जाप से भगवान्
शिव की कृपा मिलती है। शास्त्रों में इस मन्त्र को कई कष्टों का निवारक बताया गया
है।
यह मन्त्र इसप्रकार है :-
ॐ त्र्यम्बकं
यजामहे, सुगन्धिम
पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव
बन्धनात्, मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।।
(भावार्थ : हम भगवान् शिव की पूजा करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो हर श्वाँस में जीवन शक्ति का संचार करते हैं और पूरे जगत् का पालन-पोषण
करते हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि
वे हमें मृत्यु के बन्धनों से मुक्त कर दें, ताकि मोक्ष की प्राप्ति हो जाए, उसीप्रकार, जिसप्रकार एक खरबूजा अपनी बेल
में पक जाने के बाद उस बेलरूपी संसार के बन्धन से मुक्त हो जाता है।)
रुद्राभिषेक
रूद्र अर्थात् भूतभावन शिव का अभिषेक। शिव और रुद्र परस्पर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। शिव को ही
रुद्र कहा जाता है। क्योंकि रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: अर्थात् भोलेबाबा सभी दु:खों को नष्ट कर देते हैं। हमारे धर्मग्रऩ्थों
के अनुसार हमारे द्वारा किए गए पाप ही हमारे दु:खों के कारण हैं। रुद्रार्चन और
रुद्राभिषेक से हमारे कुण्डली से पातककर्म एवं महापातककर्म भी जलकर भस्म हो जाते
हैं और साधक में शिवत्त्व का उदय होता है तथा भगवान् शिव का शुभाशीर्वाद भक्त को
प्राप्त होता है और उनके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ऐसा कहा जाता है कि एकमात्र
सदाशिव रुद्र के पूजन से सभी देवताओं की पूजा स्वत: हो जाती है।
रूद्रहृदयोपनिषद में शिव के
बारे में कहा गया है कि सर्वदेवात्मको रुद्र: सर्वे देवा: शिवात्मका:
अर्थात् सभी देवताओं की आत्मा में रूद्र उपस्थित हैं और सभी देवता रूद्र की
आत्मा हैं। हमारे शास्त्रों में विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए रुद्राभिषेक के
पूजन के निमित्त अनेक द्रव्यों तथा पूजन सामग्री को बताया गया है। साधक
रुद्राभिषेक पूजन विभिन्न विधि से तथा विविध मनोरथ को लेकर करते हैं। किसी विशेष मनोरथ की पूर्ति के लिये तद्नुसार पूजन
सामग्री तथा विधि से रुद्राभिषेक किया जाता है।
रुद्राभिषेक के विभिन्न पूजन के लाभ इसप्रकार हैं-
• जल से अभिषेक करने पर वर्षा होती है।
• असाध्य रोगों को शान्त करने के लिए कुशोदक से रुद्राभिषेक करें।
• भवन-वाहन के लिए दही से रुद्राभिषेक करें।
• लक्ष्मी प्राप्ति के लिये गन्ने के रस से रुद्राभिषेक करें।
• धन-वृद्धि के लिए शहद एवं घी से अभिषेक करें।
• तीर्थ के जल से अभिषेक करने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
• इत्र मिले जल से अभिषेक करने से बीमारी नष्ट होती है ।
• पुत्र प्राप्ति के लिए दुग्ध से और यदि संतान उत्पन्न होकर मृत पैदा हो तो
गोदुग्ध से रुद्राभिषेक करें।
• रुद्राभिषेक से योग्य तथा विद्वान् संन्तान की प्राप्ति होती है।
• ज्वर की शान्ति हेतु शीतल जल / गंगाजल से रुद्राभिषेक करें।
• सहस्रनाम-मऩ्त्रों का उच्चारण करते हुए घृत की धारा से रुद्राभिषेक करने पर
वंश का विस्तार होता है।
• प्रमेह रोग की शान्ति भी दुग्धाभिषेक से हो जाती है।
• शक्कर मिले दूध से अभिषेक करने पर जडबुद्धि वाला भी बुद्धिमान हो जाता है।
• सरसों के तेल से अभिषेक करने पर शत्रु पराजित होता है।
• शहद के द्वारा अभिषेक करने पर यक्ष्मा (तपेदिक) दूर हो जाती
है।
• पातकों को नष्ट करने की कामना होने पर भी शहद से रुद्राभिषेक करें।
• गो दुग्ध से तथा शुद्ध घी से अभिषेक करने से आरोग्य प्राप्त होता है।
• पुत्र की कामनावाले व्यक्ति शक्कर मिश्रित जल से अभिषेक करें।
ऐसे तो अभिषेक साधारणरूप से जल से ही होता है। परन्तु विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों मन्त्र, गोदुग्ध या अन्य दूध मिला कर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया
जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सब को मिला कर पञ्चामृत से भी
अभिषेक किया जाता है। तन्त्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी
अभिषेक करने का विधान है।
इसप्रकार विविध द्रव्यों से शिवलिंग का विधिवत् अभिषेक करने पर अभीष्ट कामना
की पूर्ति होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी भी पुराने नियमितरूप से पूजे जाने वाले शिवलिंग का अभिषेक बहुत ही उत्तम फल देता है। किन्तु यदि पारद के शिवलिंग का अभिषेक किया जाय तो बहुत ही शीघ्र चमत्कारिक शुभ परिणाम
मिलता है।
रुद्राभिषेक का फल बहुत ही शीघ्र प्राप्त होता है। वेदों में, विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पुराणों में
तो इससे सम्बन्धित अनेक कथाओं का विवरण प्राप्त होता है। वेदों और पुराणों में
रुद्राभिषेक के बारे में तो बताया गया है कि रावण ने अपने दसों सिरों को काट कर
उसके रक्त से शिवलिंग का अभिषेक किया
था तथा सिरों को हवन की अग्नि को अर्पित कर दिया था। जिससे वो त्रिलोकजयी हो गया।
भस्मासुर ने शिवलिंग का अभिषेक अपनी आँखों के आँसूओं से किया तो वह भी भगवान्
के वरदान का पात्र बन गया।
रुद्राभिषेक करने की तिथियाँ
कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, चतुर्थी, पञ्चमी, अष्टमी, एकादशी, द्वादशी, अमावस्या, शुक्लपक्ष की तृतीया, पञ्चमी, षष्ठी, नवमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथियों में अभिषेक करने से सुख-समृद्धि, संतान प्राप्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
कालसर्प योग, गृहकलेश, व्यापार में नुकसान, शिक्षा में रुकावट सभी कार्यो की बाधाओं को दूर करने के लिए रुद्राभिषेक आपके
अभीष्टसिद्धि के लिए फलदायक है।
किसी कामना से किए जाने वाले रुद्राभिषेक में शिव-वास का विचार करने पर
अनुष्ठान अवश्य सफल होता है और मनोवाञ्छित फल प्राप्त होता है।
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी, अमावस्या तथा शुक्लपक्ष की तृतीया व नवमी के दिन भगवान् शिव माता गौरी के साथ होते हैं, इस तिथि में रुद्राभिषेक करनेसे सुख-समृद्धि उपलब्ध होती है।
कृष्णपक्ष की चतुर्थी, एकादशी तथा
शुक्लपक्ष की पञ्चमी व द्वादशी तिथियों में भगवान् शंकर कैलाश पर्वत पर होते हैं और उनकी
अनुकम्पा से परिवार में आनन्द-मंगल होता है।
कृष्णपक्ष की पञ्चमी, द्वादशी तथा शुक्लपक्ष की षष्ठी व त्रयोदशी तिथियों में महादेव नन्दी पर सवार होकर
सम्पूर्ण विश्व में भ्रमण करते हैं। अत: इन तिथियों में रुद्राभिषेक करनेपर
अभीष्टसिद्ध होता है।
कृष्णपक्ष की सप्तमी, चतुर्दशी तथा
शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, अष्टमी, पूर्णिमा में भगवान् महाकाल श्मशान में समाधिस्थ रहते हैं।
अतएव इन तिथियों में किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाने वाले रुद्राभिषेक में
आवाहन करने पर उनकी साधना भ॔ग होती है जिससे अभिषेककर्ता पर विपत्ति आ सकती है।
कृष्णपक्ष की तृतीया, नवमी तथा शुक्लपक्ष की तृतीया व दशमी में महादेव देवताओं की सभा में उनकी
समस्याएं सुनते हैं। इन तिथियों में सकाम अनुष्ठान करने पर संताप या दुख मिलता है।
कृष्णपक्ष की तृतीया, दशमी तथा
शुक्लपक्ष की चतुर्थी व एकादशी में सदाशिव क्रीडारत रहते हैं। इन तिथियों में सकाम
रुद्रार्चन संतान को कष्ट प्रदान करते हैं।
कृष्णपक्ष की षष्ठी, त्रयोदशी तथा
शुक्लपक्ष की सप्तमी व चतुर्दशी में रुद्रदेव भोजन करते हैं। इन तिथियों में
सांसारिक कामना से किया गया रुद्राभिषेक पीडा देते हैं।
ज्योर्तिलिंग-क्षेत्र एवं तीर्थस्थान में तथा शिवरात्रि, प्रदोष, श्रावण के सोमवार आदि पर्वो में शिव-वास का विचार किए बिना भी रुद्राभिषेक
किया जा सकता है।
वस्तुत: शिवलिंग का अभिषेक आशुतोष शिव को शीघ्र प्रसन्न करके साधक को उनका
कृपापात्र बना देता है और उनकी सारी समस्याएं स्वत: समाप्त हो जाती हैं।
अतः हम यह कह सकते हैं कि रुद्राभिषेक से मनुष्य के सारे पाप-ताप धुल जाते
हैं। स्वयं सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भी कहा है की जब हम अभिषेक करते है तो स्वयं महादेव
साक्षात् उस अभिषेक को ग्रहण करते हैं। संसार में ऐसी कोई वस्तु, वैभव, सुख नहीं है जो हमें रुद्राभिषेक करने या करवाने से प्राप्त नहीं हो सकता।
Contributed by Br. Prem ChaitanyaJi Mj.
<< << << End of Post Dated : 24/02/2017. >> >> >>
No comments:
Post a Comment